श्री गुरू गोबिंद सिंह जी के बड़े पु़त्र साहिबज़ादा अजीत सिंह का जन्म दिवस

गुरू नानक पातशाह की 10वीं ज्योत श्री गुरू गोबिंद सिंह जी के बड़े पु़त्र साहिबज़ादा अजीत सिंह का जन्म हिमाचल प्रदेश के पाऊंटा साहिब में हुआ। जब बाबा अजीत सिंह 5 महीनों के हुए तो उस समय दसवें पातशाह श्री गुरू गोबिंद सिंह की पहाड़ी राजाओं से भंगानी के मैदान में घमासान की लड़ाई हुई थी। इस लड़ाई में गुरू के साथीयों ने महान जीत हासिल की थी जिस की ख़ुशी के कारण साहिबजादे का नाम

*अजीत सिंह* रखा गया।

छोटी आयु में ही अजीत सिंह काफ़ी बुद्धिमान थे। जहां उन्होने गुरबाणी का गहन ज्ञान हासिल किया,वही सिख योद्धायों व गुरू पिता से युद्ध कलाओं में भी मुहारत हासिल की।साहिबज़ादा अजीत सिंह ने अपनी आयु का अधिक समय गुरू गोबिंद सिंह जी की छत्र छाया तले श्री आनंदपुर साहिब में ही व्यतीत किया। साहिबज़ादा अजीत सिंह सौ सिक्खों के जत्थे का नेतृत्व करते हुए आनंदपुर साहिब के नजदीक गांव नूर पहुंच गए ,जहां उन्होने ने वहां के रंगड़ों को अच्छा सबक सिखाया जिन्होने पोठोहार की संगत को श्री आन्नदपुर साहिब आते समय लुट लिया था।

जब पहाड़ी राजाओं ने तारागढ़ किले पर हमला किया तो अजीत सिंह ने बड़ी बहादुरता के साथ उनका सामना किया।अक्टूबर के आरम्भिक दिनों में जब पहाड़ी राजाओं ने निरमोहगढ़ पर धावा बोला तो उस वक़्त भी साहिबज़ादा अजीत सिंह ने दशम पिता का पूरा साथ दिया था। एक दिन कलगीधर पातशाह का दरबार सजा हुआ था।एक गरीब ब्राह्मण रोता हुआ आकर कहने लगा “मैं ज़िला होशियारपुर के गांव बस्सी का रहनंे वाला हूं गांव के पठानों ने मेरे साथ धक्केशाही की है। मेरी पिटाई करके मेरी र्धम-पत्नी भी मेरे से छीन ली है।अन्य किसी ने मेरे अनुरोघ पर कोई ध्यान नहीं दिया।

गुरू नानक का दर सदैव ही निमाने कामान बनता रहा है।कृपा मेरी इज्ज़त मुझे वापिस दिला दो।मै हमेशा के लिए गुरू नानक के घर का कृतज्ञ रहूंगा।*गुरू गोबिंद सिंह जी*ने साहिबज़ादा अजीत सिंह को कहा कि “बेटा! जी कुछ सिखों को साथ लेकर जाओ तथा जाबर खां से इस मज़लूम की जोरू छुडवा कर लै आओ।” साहिबज़ादा अजीत सिंह ने 100 घुडसवार सिक्खें का जत्था साथ लेकर बस्सी गांव पर धावा बोल दिया। जाबर खां की हवेली को घेर लिया तथा गरीब ब्राह्मण की पहचान पर उसकी अबला पत्नी को ज़ालिम के कब्ज़े से छुड़ा लिया।गांव पर हमले के समय दोषी के अतिरिक्त किसी ओर का कोई नुकसान नहीं होने दिया।अपने लक्ष्य को हासिल कर जब वह श्री आनंदपुर साहिब आए तो गुरू पिता ने उनका बहुत सम्मान किया।

ब्राह्मण की पत्नी उस को सौंप दी गई तथा कुकर्मी ज़ाबर खां को सजा दी गई। श्री आनंदपुर साहिब में हुए मुगलों तथा पहाड़ीयों के हमले का साहिबज़ादा अजीत सिंह ने बड़े ही दलेराना तथा सूझपूर्वक ढंग से सामना किया।श्री आनंदपुर साहिब की घमासान लड़ाई के समय पहाड़ी राजाओं तथा मुगलों की फौजों ने श्री आनंदपुर साहिब को आधे साल से ज्यादा समय तक घेरा डाली रखा।समय की नज़ाकत को देखते हुए गुरू गोबिंद सिंह जी ने अपने पिता (श्री गुरू तेग बहादुर) जी द्धारा निर्मित नगरी को छोड़ने का निर्णय कर लिया।

गुरू परिवार तथा ख़ालसा फौज़ अभी सरसा नदी के नजदीक पहुंचे ही थे कि दुश्मन की फ़ौज ने हमला कर दिया।इस संकट के समय साहिबज़ादा अजीत सिंह ने कुछ शेरदिल सिक्खों को साथ लेकर दुश्मन दल के सैनिकों को तब तक रोके रखा जब तक गुरू पिता तथा उनके सहयोगीयों ने सरसा नदी को पार न कर लिया।बाद में स्वंय भी अपने साथीयों के साथ नदी पार कर गए।नदी पार करने के बाद गुरू साहिब तथा ख़ालसा फ़ौज के कुछ (40) सिक्खां ने चमकौर साहिब में चैधरी बुद्धी राम की एक गढ़ीनुमा कच्ची हवेली की शरण ले ली।इस गढ़ी के आसरे ही श्री गुरू गोबिंद सिंह जी ने दुश्मनों की फ़ौज के साथ ”लोहा लेने का मन बना लिया

पांच-पांच सिक्खों के जत्थे बारी-बारी दुश्मनों से युद्ध करके शहीदी प्राप्त करने लगे।सिक्खों को युद्ध करते देख कर साहिबज़ादे का खून भी उबलने लगा।जब उन्होनें गुरू साहिब से मैदान-ए- जंग में जाने की आज्ञा मंगी तों कलगीधर पातशाह ने पुत्र को सीने से लगा लिया तथा कहा,“लाल जीओ! जब मैं अपने पिता (गुरू तेग बहादुर) जी को शहीद होने के लिए भेजा था तो उस समय मैने धर्मी पुत्र होने का फर्ज़ अदा किया था।उसी तर्ज पर आज मैं तुम्हें रणभूमि में भेज कर धर्मी पिता का फर्ज निभाना चाहता हूँ परमात्मा ने मुझे यहां भेजा ही इस लिए है।”

श्री गुरू गोबिंद सिंह जी ने इतनी ख़ुशी व उत्साह से साहिबज़ादा अजीत सिंह को जंग की और भेजा जितने चाव केसाथ बारात में भेजा जाता है।शीश पर हीरे से जड़ी सुंदर कलगी शोभ रही थी।जब वह बाहर निकले तो मुगलों की फौज को प्रतीत हुआ कि हजूर स्वंय ही गढ़ी से बाहर आ गए है।भारी संख्या में विरोद्धियों को सदा की नींद सुला के बाबा अजीत सिंह आप भी शहादत प्राप्त कर गए।सारा जिस्म तीरों व तलवारों से छलनी हुआ पड़ा था,परन्तु आत्मा परमात्मा में लीन हो चुकी थी। अपने फ़र्ज़न्द की बहादुरी को देख कर दश्मेश पिता जी कह रहे थे, ”बेटा अजीत! तेरी शहादत ने सही अर्थ में मुझे अकाल पुरख की ओर से सुरखरू कर दिया है।“

 

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